बे-बुलाए हुए जाना मुझे मंज़ूर नहीं
उन का वो तौर नहीं मेरा ये दस्तूर नहीं
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असर ज़ुल्फ़ का बरमला हो गया
देख कर तूल-ए-शब-ए-हिज्र दुआ करता हूँ
गया शबाब न पैग़ाम-ए-वस्ल-ए-यार आया
लब-ए-रंगीं से अगर तू गुहर-अफ़शाँ होता
रंग से पैरहन-ए-सादा हिनाई हो जाए
हम तो अपनों से भी बेगाना हुए उल्फ़त में
मैं अगर रोने लगूँ रुतबा-ए-वाला बढ़ जाए
न कोई उन के सिवा और जान-ए-जाँ देखा
इतना तो जज़्ब-ए-इश्क़ ने बारे असर किया
अज़ाँ दी काबे में नाक़ूस दैर में फूँका
वहशत में भी रुख़ जानिब-ए-सहरा न करेंगे