गया शबाब न पैग़ाम-ए-वस्ल-ए-यार आया
जला दो काट के इस नख़्ल में न बार आया
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मतलब न काबे से न इरादा कनिश्त का
नहीं बुतों के तसव्वुर से कोई दिल ख़ाली
बाद-ए-फ़ना भी है मरज़-ए-इश्क़ का असर
जोश-ए-वहशत यही कहता है निहायत कम है
असर ज़ुल्फ़ का बरमला हो गया
मैं अगर रोने लगूँ रुतबा-ए-वाला बढ़ जाए
इतना तो जज़्ब-ए-इश्क़ ने बारे असर किया
क़मर की वो ख़ुर्शीद तस्वीर है
हमारे ऐब ने बे-ऐब कर दिया हम को
पर्दा उलट के उस ने जो चेहरा दिखा दिया