अज़ाँ दी काबे में नाक़ूस दैर में फूँका
कहाँ कहाँ तुझे आशिक़ तिरा पुकार आया
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जब अयाँ सुब्ह को वो नूर-ए-मुजस्सम हो जाए
न रहे नामा ओ पैग़ाम के लाने वाले
वहशत में भी रुख़ जानिब-ए-सहरा न करेंगे
क़मर की वो ख़ुर्शीद तस्वीर है
पर्दा उलट के उस ने जो चेहरा दिखा दिया
अगर हयात है देखेंगे एक दिन दीदार
किस तरह मिलें कोई बहाना नहीं मिलता
गया शबाब न पैग़ाम-ए-वस्ल-ए-यार आया
ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है
देखी जो ज़ुल्फ़-ए-यार तबीअत सँभल गई
नहीं बुतों के तसव्वुर से कोई दिल ख़ाली