चराग़ उस ने बुझा भी दिया जला भी दिया
ये मेरी क़ब्र पे मंज़र नया दिखा भी दिया
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बंधन सा इक बँधा था रग-ओ-पय से जिस्म में
मिरा दिल भी तिलिस्मी है ख़ज़ाना
शाम भी है सुब्ह भी है और दिन भी रात भी
कौन कहता है नसीम-ए-सहरी आती है
वो अपने मतलब की कह रहे हैं ज़बान पर गो है बात मेरी
पूछते हैं वो इश्क़ का मतलब
कभी दर पर कभी है रस्ते में
ये छेड़ क्या है ये क्या मुझ से दिल-लगी है कोई
ज़ौक़-ए-उल्फ़त अब भी है राहत का अरमाँ अब भी है
जब मिलेंगे कि अब मिलेंगे आप
अहद के साथ ये भी हो इरशाद