हम भी ख़ुद को तबाह कर लेते
तुम इधर भी निगाह कर लेते
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चश्म-ए-हसीं में है न रुख़-ए-फ़ित्ना-गर में है
इश्क़ का एजाज़ सज्दों में निहाँ रखता हूँ मैं
फ़रियाद है अब लब पर जब अश्क-फ़िशानी थी
ऐ जज़्बा-ए-दिल गर मैं चाहूँ हर चीज़ मुक़ाबिल आ जाए
यूँ तो जो चाहे यहाँ साहब-ए-महफ़िल हो जाए
है ख़िरद-मंदी यही बा-होश दीवाना रहे
इक बेवफ़ा को दर्द का दरमाँ बना लिया
इक बे-वफ़ा को प्यार किया हाए क्या किया
मसरूर भी हूँ ख़ुश भी हूँ लेकिन ख़ुशी नहीं
ऐ दिल की ख़लिश गर यूँही सही चलता तो हूँ उन की महफ़िल में
ज़िंदा हूँ इस तरह कि ग़म-ए-ज़िंदगी नहीं