बोले वो मुस्कुरा के बहुत इल्तिजा के ब'अद
जी तो ये चाहता है तिरी मान जाइए
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पछताओगे फिर हम से शरारत नहीं अच्छी
कोई इस तरह से मिलने का मज़ा मिलता है
ज़ाहिदों से न बनी हश्र के दिन भी या-रब
शम-ए-मज़ार थी न कोई सोगवार था
हैं निकहत-ए-गुल बाग़ में ऐ बाद-ए-सबा हम
दिल में फिर वस्ल के अरमान चले आते हैं
न सही आप हमारे जो मुक़द्दर में नहीं
न देखना कभी आईना भूल कर देखो
दिल है मुश्ताक़ जुदा आँख तलबगार जुदा
आशिक़ समझ रहे हैं मुझे दिल लगी से आप
बज़्म-ए-दुश्मन में बुलाते हो ये क्या करते हो
उन्हें तो सितम का मज़ा पड़ गया है