जुरअत-ए-शौक़ तो क्या कुछ नहीं कहती लेकिन
पाँव फैलाने नहीं देती है चादर मुझ को
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एक दिन वो दिन थे रोने पे हँसा करते थे हम
ग़ैरों ने ग़ैर जान के हम को उठा दिया
ख़िज़ाँ जब तक चली जाती नहीं है
रहरव-ए-राह-ए-मोहब्बत रह न जाना राह में
सारी उम्मीद रही जाती है
देखा न तुम ने आँख उठा कर भी एक बार
रुख़ पे गेसू जो बिखर जाएँगे
क्या करें जाम-ओ-सुबू हाथ पकड़ लेते हैं
निगाह-ए-क़हर होगी या मोहब्बत की नज़र होगी
चमन को लग गई किस की नज़र ख़ुदा जाने
ख़िज़ाँ के जाने से हो या बहार आने से