हो न मायूस ख़ुदा से 'बिस्मिल'
ये बुरे दिन भी गुज़र जाएँगे
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उगल न संग-ए-मलामत ख़ुदा से डर नासेह
ख़िज़ाँ जब तक चली जाती नहीं है
इक ग़लत सज्दे से क्या होता है वाइज़ कुछ न पूछ
ये कह के देती जाती है तस्कीं शब-ए-फ़िराक़
ये बुत फिर अब के बहुत सर उठा के बैठे हैं
रुख़ पे गेसू जो बिखर जाएँगे
जुरअत-ए-शौक़ तो क्या कुछ नहीं कहती लेकिन
चमन को लग गई किस की नज़र ख़ुदा जाने
देखा न तुम ने आँख उठा कर भी एक बार
सारी उम्मीद रही जाती है
अब रहा क्या है जो अब आए हैं आने वाले
मजबूरियों को अपनी कहें क्या किसी से हम