उगल न संग-ए-मलामत ख़ुदा से डर नासेह
मिलेगा क्या तुझे शीशों के टूट जाने से
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एक दिन वो दिन थे रोने पे हँसा करते थे हम
तुम सुन के क्या करोगे कहानी ग़रीब की
देखा न तुम ने आँख उठा कर भी एक बार
हो न मायूस ख़ुदा से 'बिस्मिल'
जुरअत-ए-शौक़ तो क्या कुछ नहीं कहती लेकिन
न अपने ज़ब्त को रुस्वा करो सता के मुझे
कहाँ आया है दीवानों को तेरा कुछ क़रार अब तक
अब रहा क्या है जो अब आए हैं आने वाले
ख़िज़ाँ जब तक चली जाती नहीं है
मजबूरियों को अपनी कहें क्या किसी से हम
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है