तुम सुन के क्या करोगे कहानी ग़रीब की
जो सब की सुन रहा है कहेंगे उसी से हम
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सारी उम्मीद रही जाती है
ये कह के देती जाती है तस्कीं शब-ए-फ़िराक़
न अपने ज़ब्त को रुस्वा करो सता के मुझे
देखा न तुम ने आँख उठा कर भी एक बार
जब कभी नाम-ए-मोहम्मद लब पे मेरे आए है
ग़ैरों ने ग़ैर जान के हम को उठा दिया
रुख़ पे गेसू जो बिखर जाएँगे
दास्ताँ पूरी न होने पाई
क्या करें जाम-ओ-सुबू हाथ पकड़ लेते हैं
निगाह-ए-क़हर होगी या मोहब्बत की नज़र होगी
कहाँ आया है दीवानों को तेरा कुछ क़रार अब तक
ख़िज़ाँ के जाने से हो या बहार आने से