दास्ताँ पूरी न होने पाई
ज़िंदगी ख़त्म हुई जाती है
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ये बुत फिर अब के बहुत सर उठा के बैठे हैं
रुख़ पे गेसू जो बिखर जाएँगे
ख़िज़ाँ जब तक चली जाती नहीं है
मजबूरियों को अपनी कहें क्या किसी से हम
ये कह के देती जाती है तस्कीं शब-ए-फ़िराक़
जुरअत-ए-शौक़ तो क्या कुछ नहीं कहती लेकिन
अब रहा क्या है जो अब आए हैं आने वाले
क्या करें जाम-ओ-सुबू हाथ पकड़ लेते हैं
हो न मायूस ख़ुदा से 'बिस्मिल'
न अपने ज़ब्त को रुस्वा करो सता के मुझे
अल्लाह तेरे हाथ है अब आबरू-ए-शौक़