ये कह के देती जाती है तस्कीं शब-ए-फ़िराक़
वो कौन सी है रात कि जिस की सहर न हो
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इक ग़लत सज्दे से क्या होता है वाइज़ कुछ न पूछ
सारी उम्मीद रही जाती है
उगल न संग-ए-मलामत ख़ुदा से डर नासेह
निगाह-ए-क़हर होगी या मोहब्बत की नज़र होगी
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
न अपने ज़ब्त को रुस्वा करो सता के मुझे
देखा न तुम ने आँख उठा कर भी एक बार
रहरव-ए-राह-ए-मोहब्बत रह न जाना राह में
वक़्त आने दे दिखा देंगे तुझे ऐ आसमाँ
ख़िज़ाँ के जाने से हो या बहार आने से
ये बुत फिर अब के बहुत सर उठा के बैठे हैं