लिपट जाते हैं वो बिजली के डर से
इलाही ये घटा दो दिन तो बरसे
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ज़ालिम ने क्या निकाली रफ़्तार रफ़्ता रफ़्ता
मुझ गुनहगार को जो बख़्श दिया
वो जब चले तो क़यामत बपा थी चारों तरफ़
हुआ है चार सज्दों पर ये दावा ज़ाहिदो तुम को
ज़ीस्त से तंग हो ऐ 'दाग़' तो जीते क्यूँ हो
न जाना कि दुनिया से जाता है कोई
बुतान-ए-माहवश उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैं
वो ज़माना नज़र नहीं आता
अजब अपना हाल होता जो विसाल-ए-यार होता
बाक़ी जहाँ में क़ैस न फ़रहाद रह गया
चुप-चाप सुनती रहती है पहरों शब-ए-फ़िराक़
अयादत को मिरी आ कर वो ये ताकीद करते हैं