मैं ग़र्क़ हो रहा था कि तूफ़ान-ए-इश्क़ ने
इक मौज-ए-बे-क़रार को साहिल बना दिया
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क्या जाने किस ख़याल से छोड़ा प हाल-ए-ज़ार
फिर ए'तिबार-ए-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
हुस्न-ए-ख़ुद-बीं को हुआ और सिवा नाज़-ए-हिजाब
वक़्त-ए-रुख़्सत तसल्लियाँ दे कर
क्या कहिए दास्तान-ए-तमन्ना बदल गई
आग़ाज़-ए-मोहब्बत से अंजाम-ए-मोहब्बत तक
असर-ए-इश्क़ से हूँ सूरत-ए-शम्अ ख़ामोश
कूचा-गर्दी में जवानी जाएगी
हम को बेचैन किए जाते हैं
शबाब ढलते ही आई पीरी मआ'ल पर अब नज़र हुई है
तमकीं है और हुस्न-ए-गरेबाँ है और हम