अगर ऐ नाख़ुदा तूफ़ान से लड़ने का दम-ख़म है
इधर कश्ती न ले आना यहाँ पानी बहुत कम है
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ज़रा भी शोर मौजों का नहीं है
सोचने की ये बात है 'राही'
सवाल ये है कि इस पुर-फ़रेब दुनिया में
इस इंतिज़ार में बैठे हैं उन की महफ़िल में
वक़्त बर्बाद करने वालों को
इस से पहले कि लोग पहचानें
वक़ार-ए-ख़ून-ए-शहीदान-ए-कर्बला की क़सम
अबस इल्ज़ाम मत दो मुश्किलात-ए-राह को 'राही'
कुछ आदमी समाज पे बोझल हैं आज भी
अगर मौजें डुबो देतीं तो कुछ तस्कीन हो जाती
अब तो उतनी भी मयस्सर नहीं मय-ख़ाने में