इस इंतिज़ार में बैठे हैं उन की महफ़िल में
कि वो निगाह उठाएँ तो हम सलाम करें
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सोचने की ये बात है 'राही'
अब तो उतनी भी मयस्सर नहीं मय-ख़ाने में
वक़ार-ए-ख़ून-ए-शहीदान-ए-कर्बला की क़सम
अगर मौजें डुबो देतीं तो कुछ तस्कीन हो जाती
इस से पहले कि लोग पहचानें
ज़रा भी शोर मौजों का नहीं है
ग़ुस्से में बरहमी में ग़ज़ब में इताब में
सवाल ये है कि इस पुर-फ़रेब दुनिया में
इस दौर-ए-तरक़्क़ी के अंदाज़ निराले हैं
अगर ऐ नाख़ुदा तूफ़ान से लड़ने का दम-ख़म है
बहुत आसान है दो घूँट पी लेना तो ऐ 'राही'
ऐन-फ़ितरत है कि जिस शाख़ पे फल आएँगे