वक़ार-ए-ख़ून-ए-शहीदान-ए-कर्बला की क़सम
यज़ीद मोरचा जीता है जंग हारा है
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अबस इल्ज़ाम मत दो मुश्किलात-ए-राह को 'राही'
कुछ आदमी समाज पे बोझल हैं आज भी
हज़ारों बार कह कर बेवफ़ा को बा-वफ़ा मैं ने
इस दौर-ए-तरक़्क़ी के अंदाज़ निराले हैं
अगर ऐ नाख़ुदा तूफ़ान से लड़ने का दम-ख़म है
सोचने की ये बात है 'राही'
इस शहर-ए-निगाराँ की कुछ बात निराली है
इस से पहले कि लोग पहचानें
अब तो उतनी भी मयस्सर नहीं मय-ख़ाने में
इस इंतिज़ार में बैठे हैं उन की महफ़िल में
ऐन-फ़ितरत है कि जिस शाख़ पे फल आएँगे