इस दौर-ए-तरक़्क़ी के अंदाज़ निराले हैं
ज़ेहनों में अँधेरे हैं सड़कों पे उजाले हैं
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वक़ार-ए-ख़ून-ए-शहीदान-ए-कर्बला की क़सम
इस से पहले कि लोग पहचानें
अगर मौजें डुबो देतीं तो कुछ तस्कीन हो जाती
सवाल ये है कि इस पुर-फ़रेब दुनिया में
बहुत आसान है दो घूँट पी लेना तो ऐ 'राही'
अबस इल्ज़ाम मत दो मुश्किलात-ए-राह को 'राही'
ग़ुस्से में बरहमी में ग़ज़ब में इताब में
हज़ारों बार कह कर बेवफ़ा को बा-वफ़ा मैं ने
ऐन-फ़ितरत है कि जिस शाख़ पे फल आएँगे
इस शहर-ए-निगाराँ की कुछ बात निराली है
सोचने की ये बात है 'राही'