जानता है कि वो न आएँगे
फिर भी मसरूफ़-ए-इंतिज़ार है दिल
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दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
राज़-ए-उल्फ़त छुपा के देख लिया
ख़ैर दोज़ख़ में मय मिले न मिले
जमेगी कैसे बिसात-ए-याराँ कि शीशा ओ जाम बुझ गए हैं
जरस-ए-गुल की सदा
इक़बाल
अश्गाबाद की शाम
उन दिनों रस्म-ओ-रह-ए-शहर-ए-निगाराँ क्या है
रह-ए-ख़िज़ाँ में तलाश-ए-बहार करते रहे
दीदा-ए-तर पे वहाँ कौन नज़र करता है
फिर हरीफ़-ए-बहार हो बैठे
हम तो मजबूर थे इस दिल से