वो जब भी करते हैं इस नुत्क़ ओ लब की बख़िया-गरी
फ़ज़ा में और भी नग़्मे बिखरने लगते हैं
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वासोख़्त
लौह-ओ-क़लम
वो बुतों ने डाले हैं वसवसे कि दिलों से ख़ौफ़-ए-ख़ुदा गया
ऐ दिल-ए-बेताब ठहर
दर्द आएगा दबे पाँव
न आज लुत्फ़ कर इतना कि कल गुज़र न सके
हर हक़ीक़त मजाज़ हो जाए
नौहा
राज़-ए-उल्फ़त छुपा के देख लिया
हज़र करो मिरे तन से
तुम ही कहो क्या करना है
तुम्हारे हुस्न के नाम