ज़ेर-ए-लब है अभी तबस्सुम-ए-दोस्त
मुंतशिर जल्वा-ए-बहार नहीं
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शैख़ साहब से रस्म-ओ-राह न की
उन्हीं के फ़ैज़ से बाज़ार-ए-अक़्ल रौशन है
वो आ रहे हैं वो आते हैं आ रहे होंगे
ज़िंदगी क्या किसी मुफ़लिस की क़बा है जिस में
हुस्न मरहून-ए-जोश-ए-बादा-ए-नाज़
गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौ-बहार चले
इस वक़्त तो यूँ लगता है
याद का फिर कोई दरवाज़ा खुला आख़िर-ए-शब
इधर न देखो
जो मेरा तुम्हारा रिश्ता है
ज़िंदाँ की एक शाम
ये किस दयार-ए-अदम में...