ऐ शाह-ए-जुनूँ तेरे इरफ़ाँ को सलाम
ऐ चाक-ए-जिगर इस तन-उर्यां को सलाम
हशमत का तलबगार न था जाह-पसंद
ग़ारत-गरी-ए-ऐश-ओ-सामाँ को सलाम
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रग-ओ-पै में सरायत कर गया वो
जीता हूँ, कहाँ तक मैं जीता ही मरूँ
हमा-जिहत मिरी तलब जिस की मिसाल अब नहीं
क़ाएम रखें आसूदा मकाँ हम दोनों
ख़ाशाक-ए-वजूद एक भँवर में रहता
सिकंदर हूँ तलाश-ए-आब-ए-हैवाँ रोज़ करता हूँ
कभी मेरी तलब कच्चे घड़े पर पार उतरती है
रौशन कभी हो जाएँगे दिन रात मिरे
तमन्ना अपनी उन पर आश्कारा कर रहा हूँ मैं
तस्कीन-ए-दिल और रूह का आराम पिला
हर मसअले की तह में उतरना नहीं ठीक
बगूला बन के उड़ा ख़्वाहिशों के सहरा में