ख़ाशाक-ए-वजूद एक भँवर में रहता
ऐ बे-ख़बरी अपनी ख़बर में रहता
साँसों ने नहीं छोड़ी वज़ीफ़ा-ख़्वानी
मसरूफ़ मैं क्या कार-ए-दिगर में रहता
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जीता हूँ, कहाँ तक मैं जीता ही मरूँ
तमन्ना अपनी उन पर आश्कारा कर रहा हूँ मैं
किसी पे करना नहीं ए'तिबार मेरी तरह
'फ़रीद' इक दिन सहारे ज़िंदगी के टूट जाएँगे
फैली है अजब आग तुझे इस से क्या
तस्कीन-ए-दिल और रूह का आराम पिला
अक्सर मैं यहाँ मिस्ल-ए-समुंदर आया
होंटों पे दुआ आई मगर आया न तू
जब हश्र में हों पेश अमल के दफ़्तर
बगूला बन के उड़ा ख़्वाहिशों के सहरा में