ख़ानों में कई ख़ुद को बट कर आया
ऐ हुब्ब-ए-वतन तुझ से भी कट कर आया
अब अपने वतन में भी नहीं जी लगता
ये कैसे सफ़र से मैं पलट कर आया
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जब हश्र में हों पेश अमल के दफ़्तर
तमन्ना अपनी उन पर आश्कारा कर रहा हूँ मैं
तस्कीन-ए-दिल और रूह का आराम पिला
बगूला बन के उड़ा ख़्वाहिशों के सहरा में
होंटों पे दुआ आई मगर आया न तू
क़ाएम रखें आसूदा मकाँ हम दोनों
हर मसअले की तह में उतरना नहीं ठीक
किसी पे करना नहीं ए'तिबार मेरी तरह
हमा-जिहत मिरी तलब जिस की मिसाल अब नहीं
जीता हूँ, कहाँ तक मैं जीता ही मरूँ
ऐ शाह-ए-जुनूँ तेरे इरफ़ाँ को सलाम