जब हश्र में हों पेश अमल के दफ़्तर
लर्ज़ीदा तिरे क़हर से हों जिन्न-ओ-बशर
परवाना तिरे इश्क़ का होगा मिरे हाथ
कह दूँगा ज़रा शुमार इस का भी कर
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हमा-जिहत मिरी तलब जिस की मिसाल अब नहीं
कभी मेरी तलब कच्चे घड़े पर पार उतरती है
होंटों पे दुआ आई मगर आया न तू
ख़ानों में कई ख़ुद को बट कर आया
क़ाएम रखें आसूदा मकाँ हम दोनों
तमन्ना अपनी उन पर आश्कारा कर रहा हूँ मैं
किसी पे करना नहीं ए'तिबार मेरी तरह
'फ़रीद' इक दिन सहारे ज़िंदगी के टूट जाएँगे
सिकंदर हूँ तलाश-ए-आब-ए-हैवाँ रोज़ करता हूँ
बगूला बन के उड़ा ख़्वाहिशों के सहरा में
तुम्हें भी भूलने की कोशिशें कीं
फैली है अजब आग तुझे इस से क्या