हर संग में काबे के निहाँ इश्वा-ए-बुत है
क्या बानी-ए-इस्लाम भी ग़ारत-गर-ए-दीं था
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नाहक़ था 'क़लक़' मुझे ग़ुरूर-ए-इस्लाम
हम उस कूचे में उठने के लिए बैठे हैं मुद्दत से
दिल देर-गुज़ारी से है आवंद-ए-नमक
नासेह की शिकायत वही ज़ख़्म-ए-जाँ है
दिल के हर जुज़्व में जुदाई है
वही वा'दा है वही आरज़ू वही अपनी उम्र-ए-तमाम है
राज़-ए-दिल दोस्त को सुना बैठे
दूरी में क्यूँ कि हो न तमन्ना हुज़ूर की
अफ़्सोस तिरी वज़्अ पे आता है 'क़लक़'
ऐ ख़ार ख़ार-ए-हसरत क्या क्या फ़िगार हैं हम
ख़त ज़मीं पर न ऐ फ़ुसूँ-गर काट
उन से कहा कि सिद्क़-ए-मोहब्बत मगर दरोग़