है अगर कुछ वफ़ा तो क्या कहने
कुछ नहीं है तो दिल-लगी ही सही
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उठने में दर्द-ए-मुत्तसिल हूँ मैं
ये शहर बुलंद आलम-ए-बाला से था
मरमर के पए रंज-ओ-बला जीते हैं
ऐ अब्र कहाँ तक तिरे रस्ते देखें
दुनिया का अजब रंग से देखा अंगेज़
ज़िंदगी मर्ग की मोहलत ही सही
कोई कैसा ही साबित हो तबीअ'त आ ही जाती है
दिल के हर जुज़्व में जुदाई है
नाला करता हूँ लोग सुनते हैं
ख़ुद रफ़्ता हो बदमस्त हो कैसा है मिज़ाज
ज़हे क़िस्मत कि उस के क़ैदियों में आ गए हम भी
वाइ'ज़ ये मय-कदा है न मस्जिद कि इस जगह