मरमर के पए रंज-ओ-बला जीते हैं
नाराज़ हैं राज़ी-ब-रज़ा जीते हैं
अरमान मुजस्सम है सरापा अपना
जी मार के जीते हैं तो क्या जीते हैं
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हर अदावत की इब्तिदा है इश्क़
याँ नफ़्स की शोख़ी से है मजनूँ लैला
मैं राज़दाँ हूँ ये कि जहाँ था वहाँ न था
फ़ानी के है नज़दीक बक़ा को भी फ़ना
जो जा के न आए फिर जवानी है ये शय
हर ज़ख़्म-ए-जिगर खाया है दिल पर तन कर
जाहिल की है मीरास 'क़लक़' तख़्त-ओ-ताज
वही वा'दा है वही आरज़ू वही अपनी उम्र-ए-तमाम है
किस तरह से गिर्या को न हो तुग़्यानी
उठने में दर्द-ए-मुत्तसिल हूँ मैं
हम उस कूचे में उठने के लिए बैठे हैं मुद्दत से
इस बज़्म से मैदान में जाना होगा