हर ज़ख़्म-ए-जिगर खाया है दिल पर तन कर
छलनी कि हुआ शक्ल कलेजा छन कर
फिर दीदा-ए-वहशी से नज़र मिलती है
अब ख़ाक मिरी उड़ती है हिरनी बन कर
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मस्जिद को दिया छोड़ रिया की ख़ातिर
जबीन-ए-पारसा को देख कर ईमाँ लरज़ता है
बोसा देने की चीज़ है आख़िर
दुनिया का अजब रंग से देखा अंगेज़
हर तरह से ज़ाएअ' है यहाँ हर औक़ात
हम तो याँ मरते हैं वाँ उस को ख़बर कुछ भी नहीं
दुनिया में 'क़लक़' क्या है सरासर है ख़ाक
क्या ज़िक्र-ए-वफ़ा जफ़ा किसी से न बनी
बे-गाना-अदाई है सितम जौर-ओ-सितम में
नाहक़ था 'क़लक़' मुझे ग़ुरूर-ए-इस्लाम
क्या ख़ाना-ख़राबों का लगे तेरे ठिकाना
इस बज़्म से मैदान में जाना होगा