हर तरह से ज़ाएअ' है यहाँ हर औक़ात
माफ़ात तलाफ़ी है तलाफ़-ए-माफ़ात
मादूम है मौजूद तो मौजूद अदम
इसबात-ए-नफ़ी में भी है नफ़ी-ए-इसबात
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रिश्ता-ए-रस्म-ए-मोहब्बत मत तोड़
दूरी में क्यूँ कि हो न तमन्ना हुज़ूर की
ये वहम-ए-दुई दिल से जुदा करना था
वो ज़िक्र था तुम्हारा जो इंतिहा से गुज़रा
दयार-ए-यार का शायद सुराग़ लग जाता
न हो आरज़ू कुछ यही आरज़ू है
ता-माह-ए-सियाम हुए बाब-ए-उम्मीद
मूसा के सर पे पाँव है अहल-ए-निगाह का
आलूदा ख़यालात में तेरे हूँ मुदाम
हर ज़ख़्म-ए-जिगर खाया है दिल पर तन कर
पड़ा है दैर-ओ-काबा में ये कैसा ग़ुल ख़ुदा जाने
राज़-ए-दिल दोस्त को सुना बैठे