दुनिया में 'क़लक़' क्या है सरासर है ख़ाक
दरवेश है ख़ाक और तवंगर है ख़ाक
मिटने के लिए शक्ल बनी है सब की
जो ख़ाक की सौग़ात है आख़र है ख़ाक
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कहता हूँ ख़ुदा-लगती अक़ीदे के ख़िलाफ़
नासेह की शिकायत वही ज़ख़्म-ए-जाँ है
आलूदा ख़यालात में तेरे हूँ मुदाम
किस क़दर दिलरुबा-नुमा है दिल
जी है ये बिन लगे नहीं रहता
उठने में दर्द-ए-मुत्तसिल हूँ मैं
तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर सही
है बस कि जवानी में बुढ़ापे का ग़म
कुफ़्र और इस्लाम में देखा तो नाज़ुक फ़र्क़ था
हो मोहब्बत की ख़बर कुछ तो ख़बर फिर क्यूँ हो
ये वहम-ए-दुई दिल से जुदा करना था
जाहिल की है मीरास 'क़लक़' तख़्त-ओ-ताज