कुफ़्र और इस्लाम में देखा तो नाज़ुक फ़र्क़ था
दैर में जो पाक था का'बे में वो नापाक था
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किधर क़फ़स था कहाँ हम थे किस तरफ़ ये क़ैद
याँ हम को दिया क्या जो वहाँ पर हो निगाह
दिल जोश-ए-मआसी से न क्यूँ ख़ूँ हो जाए
दयार-ए-यार का शायद सुराग़ लग जाता
हर तरह से ज़ाएअ' है यहाँ हर औक़ात
इस वक़्त ज़माने में बहम ऐसे हैं
लो जाइए बस ख़ुदा हमारा हाफ़िज़
राज़-ए-दिल दोस्त को सुना बैठे
तुझ से ऐ ज़िंदगी घबरा ही चले थे हम तो
ऐ ख़ार ख़ार-ए-हसरत क्या क्या फ़िगार हैं हम
बुत-ख़ाने की उल्फ़त है न काबे की मोहब्बत
जी है ये बिन लगे नहीं रहता