दिल जोश-ए-मआसी से न क्यूँ ख़ूँ हो जाए
का'बा भी मिरे तौफ़ से मजनूँ हो जाए
बोसे मैं अगर दूँ हज्र-ए-असवद पर
लब-हा-ए-मय-आलूद से गुल-गूँ हो जाए
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तुझ से ऐ ज़िंदगी घबरा ही चले थे हम तो
ज़ोलीदा मुअम्मा है जहान-ए-पुर-पेच
हर ज़ख़्म-ए-जिगर खाया है दिल पर तन कर
क्या आ के जहाँ में कर गए हम
बोसा देने की चीज़ है आख़िर
क्यूँकर न आस्तीं में छुपा कर पढ़ें नमाज़
है मेहर-ए-करम गुनाह-गारी मेरी
उस से न मिलिए जिस से मिले दिल तमाम उम्र
फ़िक्र-ए-सितम में आप भी पाबंद हो गए
ऐ ख़ार ख़ार-ए-हसरत क्या क्या फ़िगार हैं हम
क्या ख़ाना-ख़राबों का लगे तेरे ठिकाना
दरवाज़े पे तेरे ही मरूँगा या-रब