है मेहर-ए-करम गुनाह-गारी मेरी
इमज़ा-ए-नवेद उमीद-वारी मेरी
कर रहम न इंसाफ़ कि सब जानते हैं
रहमत तेरी तबाह-कारी मेरी
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किस लिए दावा-ए-ज़ुलेख़ाई
वो संग-दिल अंगुश्त-ब-दंदाँ नज़र आवे
उस से न मिलिए जिस से मिले दिल तमाम उम्र
फ़ानी के है नज़दीक बक़ा को भी फ़ना
कुफ़्र और इस्लाम में देखा तो नाज़ुक फ़र्क़ था
न लगती आँख तो सोने में क्या बुराई थी
जो दिलबर की मोहब्बत दिल से बदले
कोई कैसा ही साबित हो तबीअ'त आ ही जाती है
मुँह गेसू-ए-पुर-ख़म से न मोड़ूँ कब तक
अफ़्सोस तिरी वज़्अ पे आता है 'क़लक़'
तुझ से ऐ ज़िंदगी घबरा ही चले थे हम तो
इस वक़्त ज़माने में बहम ऐसे हैं