अफ़्सोस तिरी वज़्अ पे आता है 'क़लक़'
अंदाज़ तिरा जी को कुढ़ाता है 'क़लक़'
तो दौलत-ए-हुस्न है कि नक़्द-ए-ना-अहल
क्यूँ हाथ से अपने आप जाता है 'क़लक़'
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हम कौन हैं एहतिमाम करने वाले
याँ नफ़्स की शोख़ी से है मजनूँ लैला
है मेहर-ए-करम गुनाह-गारी मेरी
क्या कहें तुझ से हम वफ़ा क्या है
दुनिया में 'क़लक़' क्या है सरासर है ख़ाक
वाइ'ज़ ने मय-कदे को जो देखा तो जल गया
ज़ुहहाद का ग़फ़लत से है औराद-ओ-सुजूद
दूरी में क्यूँ कि हो न तमन्ना हुज़ूर की
तेरा दीवाना तो वहशत की भी हद से निकला
नक़्श-बर-आब नाम है सैल-ए-फ़ना मक़ाम
जी है ये बिन लगे नहीं रहता
दामन से गुल-ए-ताज़ा महकते निकले