अफ़्साना-ए-यार बहर-ए-वसलत है लज़ीज़
पैमाना-ए-मय पए फ़राग़त है लज़ीज़
ऐ शैख़ है हर वक़्त तू रूखा-फीका
ये तुर्फ़ा मज़ाक़ है कि ताअ'त है लज़ीज़
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क्यूँकर न आस्तीं में छुपा कर पढ़ें नमाज़
उस ख़ित्ते की जा आलम-ए-बाला में नहीं
दरवाज़े पे तेरे ही मरूँगा या-रब
तेरे वादे का इख़्तिताम नहीं
मेहराब-ओ-मुसल्ला और ज़ाहिद भी वही
ख़ुद को कभी न देखा आईने ही को देखा
जी है ये बिन लगे नहीं रहता
ज़हे क़िस्मत कि उस के क़ैदियों में आ गए हम भी
दिल के हर जुज़्व में जुदाई है
उठने में दर्द-ए-मुत्तसिल हूँ मैं
गर्दन को झुका देता है अदना एहसान
बुत-ख़ाने की उल्फ़त है न काबे की मोहब्बत