हर फ़स्ल में होते हैं जवाँ सारे शजर
हर साल नए फूलते-फलते हैं समर
इंसाँ की कोई फ़स्ल न फिर कर आए
अव्वल ही का झोका है बहार-ए-आख़र
Allama Iqbal
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दूरी में क्यूँ कि हो न तमन्ना हुज़ूर की
ये वहम-ए-दुई दिल से जुदा करना था
आप के महरम असरार थे अग़्यार कि हम
ग़ैरों को शब-ए-वस्ल बुलाने से ग़रज़
हर अदावत की इब्तिदा है इश्क़
ज़िंदगी मर्ग की मोहलत ही सही
वाइ'ज़ ने मय-कदे को जो देखा तो जल गया
रिश्ता-ए-रस्म-ए-मोहब्बत मत तोड़
क्या आ के जहाँ में कर गए हम
दुनिया का तमाम कारख़ाना है अबस
जबीन-ए-पारसा को देख कर ईमाँ लरज़ता है
कौन जाने था उस का नाम-ओ-नुमूद