ग़ैरों को शब-ए-वस्ल बुलाने से ग़रज़
मुश्ताक़ ज़माने को दिखाने से ग़रज़
अरमाँ हसरत दरेग़ बाहर बाहर
इक तुझ से ग़रज़ है या ज़माने से ग़रज़
Habib Jalib
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Faiz Ahmad Faiz
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ये शहर बुलंद आलम-ए-बाला से था
इस बज़्म से मैदान में जाना होगा
किस वास्ते दी थीं हमें या-रब आँखें
मस्जिद में न जा वाँ नहीं होने का निबाह
मोहब्बत वो है जिस में कुछ किसी से हो नहीं सकता
फ़िक्र-ए-सितम में आप भी पाबंद हो गए
उन से कहा कि सिद्क़-ए-मोहब्बत मगर दरोग़
दुनिया में 'क़लक़' क्या है सरासर है ख़ाक
हर अदावत की इब्तिदा है इश्क़
इस अहद में एहतिसाब-ए-ईमानी क्या
किस तरह से गिर्या को न हो तुग़्यानी