फ़िक्र-ए-सितम में आप भी पाबंद हो गए
तुम मुझ को छोड़ दो तो मैं तुम को रिहा करूँ
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कल तक थी ख़ुल्द ख़ाना-ज़ाद-ए-देहली
कोई कैसा ही साबित हो तबीअ'त आ ही जाती है
कहता हूँ ख़ुदा-लगती अक़ीदे के ख़िलाफ़
क्या ख़ाना-ख़राबों का लगे तेरे ठिकाना
ज़ुलेख़ा बे-ख़िरद आवारा लैला बद-मज़ा शीरीं
दिल के हर जुज़्व में जुदाई है
तेरा दीवाना तो वहशत की भी हद से निकला
दुनिया का तमाम कारख़ाना है अबस
जौहर-ए-आसमाँ से क्या न हुआ
हर ज़ख़्म-ए-जिगर खाया है दिल पर तन कर
ये शहर बुलंद आलम-ए-बाला से था
मरमर के पए रंज-ओ-बला जीते हैं