कहता हूँ ख़ुदा-लगती अक़ीदे के ख़िलाफ़
है तेरा ख़ता-वार सज़ावार-ए-मुआ'फ़
है रहम ही शायान-ए-ख़ुदाई तुझ को
इंसाफ़ यही है कि न करना इंसाफ़
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याँ हम को दिया क्या जो वहाँ पर हो निगाह
मोहब्बत वो है जिस में कुछ किसी से हो नहीं सकता
ऐ अब्र कहाँ तक तिरे रस्ते देखें
ख़ुद देख ख़ुदी को ओ ख़ुद-आरा
अश्क के गिरते ही आँखों में अंधेरा छा गया
किस लिए दावा-ए-ज़ुलेख़ाई
फ़ानी के है नज़दीक बक़ा को भी फ़ना
ख़त ज़मीं पर न ऐ फ़ुसूँ-गर काट
बे-गाना-अदाई है सितम जौर-ओ-सितम में
है अगर कुछ वफ़ा तो क्या कहने
गाहे तो करम हम पे भी फ़रमाएँ आप
किस वास्ते दी थीं हमें या-रब आँखें