किस लिए दावा-ए-ज़ुलेख़ाई
ग़ैर यूसुफ़ नहीं ग़ुलाम नहीं
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जो दिलबर की मोहब्बत दिल से बदले
पड़ा है दैर-ओ-काबा में ये कैसा ग़ुल ख़ुदा जाने
है मेहर-ए-करम गुनाह-गारी मेरी
आए क्या तेरा तसव्वुर ध्यान में
अफ़्सोस तिरी वज़्अ पे आता है 'क़लक़'
दूरी में क्यूँ कि हो न तमन्ना हुज़ूर की
दयार-ए-यार का शायद सुराग़ लग जाता
है बस कि जवानी में बुढ़ापे का ग़म
गाहे तो करम हम पे भी फ़रमाएँ आप
नाहक़ था 'क़लक़' मुझे ग़ुरूर-ए-इस्लाम
दिल जोश-ए-मआसी से न क्यूँ ख़ूँ हो जाए
अफ़्साना-ए-यार बहर-ए-वसलत है लज़ीज़