नाहक़ था 'क़लक़' मुझे ग़ुरूर-ए-इस्लाम
मरदूद हुआ करती है नज़र-ए-असनाम
मेहराब है मस्जिद में मिरा अफ़्साना
तौबा है हुआ हूँ मैं भी क्या ही बदनाम
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हो जुदा ऐ चारा-गर है मुझ को आज़ार-ए-फ़िराक़
हम तो याँ मरते हैं वाँ उस को ख़बर कुछ भी नहीं
ग़ैरों को शब-ए-वस्ल बुलाने से ग़रज़
जो जा के न आए फिर जवानी है ये शय
फ़िक्र-ए-सितम में आप भी पाबंद हो गए
नासेह की शिकायत वही ज़ख़्म-ए-जाँ है
शहर उन के वास्ते है जो रहते हैं तुझ से दूर
जो कहता है वो करता है बर-अक्स उस के काम
गाहे तो करम हम पे भी फ़रमाएँ आप
क्यूँकर न आस्तीं में छुपा कर पढ़ें नमाज़
बोसा देने की चीज़ है आख़िर
उठने में दर्द-ए-मुत्तसिल हूँ मैं