इस वक़्त ज़माने में बहम ऐसे हैं
हर बज़्म में कहते हैं कि हम ऐसे हैं
है रिंद-ए-हज़ार-शेवा हर चंद 'क़लक़'
ईमाँ से अगर पूछिए कम ऐसे हैं
Javed Akhtar
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उठने में दर्द-ए-मुत्तसिल हूँ मैं
इस अहद में एहतिसाब-ए-ईमानी क्या
था आदम-ए-ख़ाकी ग़ज़ब बे-ज़िन्हार
न हो आरज़ू कुछ यही आरज़ू है
गर्दन को झुका देता है अदना एहसान
दिल के हर जुज़्व में जुदाई है
है बस कि जवानी में बुढ़ापे का ग़म
चल दिए हम ऐ ग़म-ए-आलम विदाअ'
मैं राज़दाँ हूँ ये कि जहाँ था वहाँ न था
वो ज़िक्र था तुम्हारा जो इंतिहा से गुज़रा
ख़ुशी में भी नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ हूँ
तू देख तो उधर कि जो देखा न जाए फिर