जाँ जाए पर उम्मीद न जाएगी कभी
नींद आँख में आराम न पाएगी कभी
ग़ैर आएगा क्यूँ ख़ाना-ए-दिल में तू आ
ऐ पर्दा-नशीं यास न आएगी कभी
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गर्दन को झुका देता है अदना एहसान
ख़ुर्शीद पे जिस वक़्त ज़वाल आता है
क्या लेने सू-ए-जाह-ओ-हशम जाएँगे
ख़ुद को कभी न देखा आईने ही को देखा
न लगती आँख तो सोने में क्या बुराई थी
झगड़ा था जो दिल पे उस को छोड़ा
याँ हम को दिया क्या जो वहाँ पर हो निगाह
हर फ़स्ल में होते हैं जवाँ सारे शजर
है अगर कुछ वफ़ा तो क्या कहने
तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर सही
ता-माह-ए-सियाम हुए बाब-ए-उम्मीद
रहम कर मस्तों पे कब तक ताक़ पर रक्खेगा तू