ख़ुर्शीद पे जिस वक़्त ज़वाल आता है
क्यूँ ज़ेर-ए-ज़मीं छुप के चला जाता है
जो दाग़ तह-ए-ख़ाक हैं रौशन उन से
हर शब ये चराग़ अपना जला जाता है
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क्या लेने सू-ए-जाह-ओ-हशम जाएँगे
अफ़्सोस तिरी वज़्अ पे आता है 'क़लक़'
है अगर कुछ वफ़ा तो क्या कहने
कुफ़्र और इस्लाम में देखा तो नाज़ुक फ़र्क़ था
ख़त ज़मीं पर न ऐ फ़ुसूँ-गर काट
हर रोज़ ख़ुशी है शब-ए-ग़म से पामाल
है ख़मोशी-ए-इंतिज़ार बला
ये वहम-ए-दुई दिल से जुदा करना था
मूसा के सर पे पाँव है अहल-ए-निगाह का
पहले रख ले तू अपने दिल पर हाथ
आसमाँ अहल-ए-ज़मीं से क्या कुदूरत-नाक था
मुँह गेसू-ए-पुर-ख़म से न मोड़ूँ कब तक