ख़ुद रफ़्ता हो बदमस्त हो कैसा है मिज़ाज
कल आप की क्या वज़्अ थी क्या रंग है आज
देखा है अगर ख़्वाब-ए-ज़ुलेख़ा संभलों
रानाई-ए-यूसुफ़ की कुआँ है मेराज
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ये शहर बुलंद आलम-ए-बाला से था
ऐ चश्म-ए-ग़मीं तेरे एवज़ रोए कौन
क्या जानिए उल्फ़त का है किस से आग़ाज़
जो दिलबर की मोहब्बत दिल से बदले
तुझ से ऐ ज़िंदगी घबरा ही चले थे हम तो
जौहर-ए-आसमाँ से क्या न हुआ
ख़ुदा से डरते तो ख़ौफ़-ए-ख़ुदा न करते हम
शहर उन के वास्ते है जो रहते हैं तुझ से दूर
किस लिए दावा-ए-ज़ुलेख़ाई
हर फ़स्ल में होते हैं जवाँ सारे शजर
हो मोहब्बत की ख़बर कुछ तो ख़बर फिर क्यूँ हो
हर ज़ख़्म-ए-जिगर खाया है दिल पर तन कर