ऐ चश्म-ए-ग़मीं तेरे एवज़ रोए कौन
जी अपना भला मेरे लिए खोए कौन
अफ़साना-ए-वस्ल किस से पूछूँ शब-ए-हिज्र
आप ही मैं कहूँ आप सुनूँ सोए कौन
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वाइ'ज़ ने मय-कदे को जो देखा तो जल गया
हर ज़ख़्म-ए-जिगर खाया है दिल पर तन कर
क्या जानिए उल्फ़त का है किस से आग़ाज़
मोहब्बत वो है जिस में कुछ किसी से हो नहीं सकता
जब बाप मुआ तो फिर है बेटा क्या शय
न हो आरज़ू कुछ यही आरज़ू है
न पहुँचे हाथ जिस का ज़ोफ़ से ता-ज़ीस्त दामन तक
ऐ ख़ार ख़ार-ए-हसरत क्या क्या फ़िगार हैं हम
ख़ुदा से डरते तो ख़ौफ़-ए-ख़ुदा न करते हम
मातम-ए-दीद है दीदार का ख़्वाहाँ होना
वाइ'ज़ ये मय-कदा है न मस्जिद कि इस जगह
इस अहद में एहतिसाब-ए-ईमानी क्या