था आदम-ए-ख़ाकी ग़ज़ब बे-ज़िन्हार
पर मौत के हाथों से हुआ है नाचार
सच है 'क़लक़' इंसान है क्या कुछ सरकश
मर कर भी तो होता है ये काँधों पे सवार
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कोई कैसा ही साबित हो तबीअ'त आ ही जाती है
अम्न और तेरे अहद में ज़ालिम
क्या कहें तुझ से हम वफ़ा क्या है
न हो आरज़ू कुछ यही आरज़ू है
ऐ पर्दा-नशीं सहल हुआ ये इश्काल
गाहे तो करम हम पे भी फ़रमाएँ आप
बे-गाना-अदाई है सितम जौर-ओ-सितम में
हम तो याँ मरते हैं वाँ उस को ख़बर कुछ भी नहीं
क्या जानिए उल्फ़त का है किस से आग़ाज़
अफ़्सोस तिरी वज़्अ पे आता है 'क़लक़'
तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर सही
गर्दन को झुका देता है अदना एहसान