अम्न और तेरे अहद में ज़ालिम
किस तरह ख़ाक-ए-रहगुज़र बैठे
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किस क़दर दिलरुबा-नुमा है दिल
ये शहर बुलंद आलम-ए-बाला से था
पड़ा है दैर-ओ-काबा में ये कैसा ग़ुल ख़ुदा जाने
अंदाज़ा आदमी का कहाँ गर न हो शराब
मस्जिद में न जा वाँ नहीं होने का निबाह
ख़ुर्शीद पे जिस वक़्त ज़वाल आता है
है दोस्ती-ए-आल-ए-अबा रोने से
मोहब्बत वो है जिस में कुछ किसी से हो नहीं सकता
हर संग में काबे के निहाँ इश्वा-ए-बुत है
शह कहते थे अफ़्सोस न कहना माने
ता-माह-ए-सियाम हुए बाब-ए-उम्मीद