वो संग-दिल अंगुश्त-ब-दंदाँ नज़र आवे
ऐसा कोई सदमा मिरी जाँ पर नहीं होता
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किस तरह कहूँ आ भी कहीं उज़्र न कर
क्यूँकर न आस्तीं में छुपा कर पढ़ें नमाज़
तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर सही
मुँह गेसू-ए-पुर-ख़म से न मोड़ूँ कब तक
हर संग में काबे के निहाँ इश्वा-ए-बुत है
ऐ अब्र कहाँ तक तिरे रस्ते देखें
जाँ जाए पर उम्मीद न जाएगी कभी
कहता हूँ ख़ुदा-लगती अक़ीदे के ख़िलाफ़
जो जा के न आए फिर जवानी है ये शय
अश्क के गिरते ही आँखों में अंधेरा छा गया
क्या कहें तुझ से हम वफ़ा क्या है
ग़ैरों को शब-ए-वस्ल बुलाने से ग़रज़